लघुकथा
■साधो!!देखो जग बौराना…
-विक्रम ‘अपना’
[ नन्दिनी अहिवारा-छत्तीसगढ़ ]
निर्गुण निराकार, परमब्रम्ह एक बार अपने प्रिय भक्त कबीर का हाल जानने धरती पर आए।
लोगों ने देखा कि गांव के बाहर कोई फ़क़ीर महात्मा, पेड़ के नीचे धूनी रमाए बैठे हैं। यह खबर जंगल में लगी आग की तरह दसों दिशाओं में फैल गई।
पंडित, मौलाना और पादरी भी वहां पहुंचे और उन्होंने उन समाधिस्थ महात्मा को अपने सम्प्रदाय का बताना प्रारंभ कर दिया। लेकिन यह बात सिद्ध करने में भी एक बड़ी समस्या आड़े आ रही थी और वह यह थी कि उस महात्मा के शरीर पर ऐसे किसी प्रकार का छाप, तिलक, दाढ़ी, माला, तस्बीह, क्रॉस या कोई भी निशान नहीं था जिससे यह विनिश्चय किया सके कि वह हिन्दू, मुसलमान, सिख या ईसाई सम्प्रदाय का है।
दरअसल, वह साधु तो नंगा था।
अब सब समाधान के लिए सब भागे भागे कबीर के पास आए।
निर्गुण रंग में रंगे, कबीर को पल भर में सारा माजरा समझ में आ गया।
और फिर उन्होंने इन पंक्तियों से अपने हृदय का उद्गार प्रकट कर दिया……
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान…..
और जब सब लोग, कबीर को साथ लेकर महात्मा के पास पहुंचे वे अंतर्ध्यान हो चुके थे। वास्तव में वह तो कबीर में ही समाहित हो चुके थे और अब उस स्थान पर केवल वही पेड़ पूर्ववत खड़ा था जिसके नीचे उन महात्मा जी ने आश्रय लिया था।
पंडित, मौलाना और पादरी ने आश्चर्य में भरकर देखा कि वह घना पेड़, पंछियों को आसरा, जन जन को ठंडी छाया और मीठे फल दे रहा था वह भी किसी जातिगत भेदभाव के।
अभी वे सामान्य भी नहीं हुए थे कि उन्हें फिर से हैरानी ने घेर लिया।
दरअसल, अभी अभी कबीर ने एक बांस का टुकड़ा लेकर भूमि पर गाड़ दिया जिसे वे धर्मगुरु ‘उलटबांसी’ की उपमा दे रहे थे।
पेड़ के सामने ही पानी से भरे लबालब ताल में मछलियां पानी में अठखेलियाँ करती हुई उछल उछलकर बाहर आ रही थीं जबकि एक हिरनी हरी भरी दूब से आतृप्त होकर, न जाने क्या खोजती हुई बैचैन होकर, मारी मारी फिर रही थी।
जब कबीर ने यह दृश्य देखा तो वे भावविह्वल होकर यह पद गाने लगे……
पानी में मीन प्यासी
मोहे सुन सुन आवत हांसी…..
आतम ज्ञान बिना नर भटके
कोई मथुरा कोई काशी
जैसे मृग नाभि – कस्तूरी
वन वन फिरत उदासी
पानी में मीन पियासी
मोहे सुनि – सुनि आवत हांसी ..
अब पेड़ के पीछे छिपे पंडित, मौलाना और पादरी फिर से झगड़ पड़े ।
वे कबीर वाणी सुनकर आपस में कुतर्क करने लगे कि पानी में रहकर भला मीन, कैसे प्यासी रह सकती है और यकीनन मृग तो पानी की तलाश में ही वन वन भटक रही है।
तभी, आत्मज्ञानी कबीर जी के मुख से अनायास यह पद निकल पड़ा…..
साधो!! देखो जग बौराना……
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