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  • ■समीक्षा : ‘धड़कनों का संगीत’. ■कवयित्री : डॉ. आरती कुमारी. ■समीक्षक : रुपेंद्र राज तिवारी.

■समीक्षा : ‘धड़कनों का संगीत’. ■कवयित्री : डॉ. आरती कुमारी. ■समीक्षक : रुपेंद्र राज तिवारी.

2 years ago
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♀ कविता का कार्य,सामाजिक चेतना का प्रसार

■डॉ. आरती कुमारी


■रूपेंद्र राज तिवारी

जिस दौर से हम गुज़र रहे हैं ,वह आपदाओं का दौर है । विगत वर्षों में मानव ने क्रूरतम समय देखा है। अस्थिरता के आलम में जहाँ वर्चस्ववाद का एकछत्र राज है ,वहीं आम आदमी के संघर्षों की कभी खत्म न होने वाली कहानियों में इज़ाफ़े हुए हैं। ऐसे में मनुष्य को स्थायित्व और मानसिक शांति की आवश्यकता है और मानसिक शांति कहीं बाहर नहीं मन के भीतर ही मिलती है। इसी मन के भीतर की नीरव शांति में , धड़कनों का स्वाभाविक रिदम, संगीत की लय सा प्रतीत होता है।
मेरे हाथों में इस समय देश की प्रसिद्ध ग़ज़लगो, गीतकार और बहुत ही सुंदर स्वर की सम्राज्ञी डॉ० आरती कुमारी का काव्य संग्रह है “धड़कनों का संगीत”।
जैसे तपते सूरज में आग से जलती धरती पर बादलों का नेह बरसे और मिट्टी की सोंधी खुशबू से सारा आलम महक जाए, ऐसे ही इस आपाधापी और संक्रमण काल में “धड़कनों का संगीत” लेकर आई हैं आरती कुमारी।
आज इस अराजक युग में सबसे अधिक आवश्यकता है मन को सशक्त करने के लिए प्रार्थनाओं की और जब प्रार्थनाएं अहिंसा के लिए हों तो विश्व शांति का संदेश समाहित करने वाली हो जाती हैं । हम इस शांति के लिए भटक रहे हैं, जबकि हमारे ही पूर्वजों ने इसे हमें सौंपा था। हमारी उदासीनता अथवा असावधानी ने इसे हम से अलग कर दिया है । आरती अपनी कविता “अहिंसा” में लिखती हैं_

‘यदि बचाना है /अपना अस्तित्व /तो त्यागने होंगे/ सारी शंकाएं और भय /क्रोध ,ईर्ष्या /अहं लोभ का अस्त्र।

फिर आगे वे लिखती हैं_

चलाना होगा/ सादगी और ईमानदारी का चरखा /सच्चाई के धागे से बुननी होगी /सेवा, श्रद्धा की चादर /धारण करना होगा /मानवता का चश्मा /आत्मविश्वास की लाठी/ और संकल्प की खड़ाऊं पहन /तय करना होगा /अहिंसा के कठिन मार्ग को।

एक पूरा दर्शन ही इन पंक्तियों में कह दिया आरती जी ने। विश्व जिस व्यक्ति का लोहा आज तक मानता है, उसी व्यक्ति का देश में होता अपमान व्यथित करता है।
बहरहाल इस कविता को पूरा कोट करने के लोभ से मैं खुद को संवरण नहीं कर पाई। कितनी सच्चाई है इस कविता में कि सच में कठिन हो गया है इन सबका सामना करना। सादगी ,ईमानदारी ,सच्चाई ,सेवा ,श्रद्धा ,मानवता, आत्मविश्वास ,संकल्प, अहिंसा ये सारे ऐसे शब्द है जैसे ये लुप्त होने की कगार में खड़े हैं। इस कविता ने आज की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकताओं को इंगित किया है ।समाज, देश और विश्व व्यापक फलक है इस कविता का।

“मानवता की बारिश/ में ईर्ष्या द्वेष/ सब धुल जाएं/ स्नेह ममता और प्रेम के/ अमर फूल खिल जाएं।

इस कविता में अद्भुत बिम्ब संयोजन है। जहाँ मानवता की बारिश ,अहंकार की चट्टानों ,संवेदना के बीज और भावना के फल ।
शिद्दत से महसूस करती है कवयित्री कि समाज में तेजी से आपसी सौहार्द की कमी हो रही है जिससे उचट कर मानवता दम तोड़ रही है। मन की धरती उजड़ रही है, ऐसे में आवश्यकता है मानवता की ताकि बची रहे संवेदनाएं और पनपती रहें भावनाएं।
चार प्रमुख शीर्षकों के अंतर्गत इस काव्य संग्रह की कविताओं को व्यवस्थित किया गया है जिसमें पहला शीर्षक “प्रार्थनाएं कभी बेकार नहीं जातीं” में उपरोक्त विवरण उन्हीं कविताओं से है।
शीर्षक “फिर तुम्हारी याद आई ”
प्रेम विरह का एक अलग ही रंग है । विरह में प्रेम और भी प्रगाढ़ होता है। प्रेम को पनपने के लिए जिस कशिश, जिस तड़प और जिस शिद्दत की जरूरत होती है, विरह के दिनों में ही वह उपलब्ध होती है । प्रेम रूपी पेड़ को विरह रूपी खाद और बिरहन के आंसुओं का पवित्र जल ही उसे और अधिक सघन बनाता है।
काव्य में श्रृंगार रस में जिन दो रसों की प्रधानता देखी गई है ,वे संयोग और वियोग हैं। जिसमें वियोग को सृजन का सर्वश्रेष्ठ रस माना जाता है। कई प्राचीन काव्य ग्रंथ इसी वियोग की उत्पत्ति से महान हुए हैं।
आरती जी की इस शीर्षक की कविताएं भी मुख्यत: वियोग अथवा विरह पर केंद्रित हैं ।
जहाँ कविता “स्मृति” में बहुत ही खूबसूरत पंक्तियां_
जिंदगी की किताब में/ स्मृतियों के कई पृष्ठ / वक्त की स्याही से लिखे_ शब्द, अनुशासित भाव/ कुछ स्पंदित क्षण/सूखे गुलाब के निशान/ और / आंसुओं से गीले /तुम्हारे ख़त_ का उल्लेख स्मृतियों में प्रेम को साकार भाव से आरोपित करता है। वहीं “पतंग” के माध्यम से ख्वाहिशों की पतंगों का हवा में उन्मुक्त उड़ना, किंतु चेतना रूपी डोर का बार-बार उसे खींचना ताकि इस बहाव में दिशाहीन होने से बचा जा सके, एक संदेश देती रचना है।
प्रेम जहांँ उन्मुक्त है, वहीं ठहराव भी है। प्रेम ज़िम्मेदार होना भी सिखाता है। कुछ पाने से अधिक कुछ खोने का नाम है प्रेम।
कविता “दे सकूंगा मैं” एक प्रेमी की निष्ठा और समर्पण की कविता है । अक्सर प्रेम में प्रेमिकाओं के समर्पण की अधिक चर्चा होती है, किंतु इस कविता में प्रेमी अपने प्रेम के प्रति प्रेमिका को निश्चिंत करता है __

‘दे सकूंगा मैं /बस अपना सच्चा हृदय /तुम्हारे लिए उमड़ता/ अनंत प्रेम /और एक वादा /हर पल/ हर हाल में/ सदा तुम्हारा साथ देने का__

इन आश्वस्त करते शब्दों के अतिरिक्त शायद ही प्रेमिका के मन में कोई इच्छा शेष रह जाती है।
हम अक्सर प्रेम को युगल के लिए ही सीमित कर देते हैं। प्रेम तो हर व्यक्ति का अधिकार है, हर रिश्ते का स्पंदन, हर कण में व्याप्त प्रेम की असीमित परिभाषा है, जो पूर्ण होकर भी अपूर्णता में भी अद्भुत अतुल्य है। मांँ के लिए किसी का भी ह्रदय आजीवन स्पंदित होता रहता है। “जीवित रहोगी सदा” एक ऐसी ही मर्मस्पर्शी कविता है।
“पुल”, “दस्तक”, “इंतजार”,”मन्नत का धागा”, कविताएं प्रेम के रंग में डूबी किसी नायिका के वियोग में स्वयं को आश्वस्त करतीं तथा प्रेम के सात्विक रूप को कहतीं प्रतीत होती हैं।
कविता “किताब” की यह पंक्तियां

_’कहीं-कहीं लगा रखे हैं /तुम्हारी यादों के बुकमार्क भी मैंने /जिस पर जब चाहूं/ पहुंच जाती हूं मैं /अपनी खामोश बेबस तन्हाइयों में/ और पा जाती हूंँ तुम्हारा साथ।

जीवन की किताब में यादों के अध्याय सुखद व सुकून भरे होते हैं ,जिनमें साथ न होकर भी सामीप्य का अनुभव होता रहता है।
संग्रह में छंद मुक्त कविताओं के साथ कुछ गीत इस तरह से जुड़े हैं ,जैसे हीरों में माणिक अलग से चमकता हो।

“तुझको बिन देखे ही मैंने है अनुबंध किया /ख्वाबों में महसूसा तुझको जीवन संग जिया /सब कुछ तेरा अर्पण तुझको क्या लागे है मोर/ सागर से भी गहरी है ये जिसका ओर न छोर। अथाह सागर से गहरी प्रीत का एक बहुत ही प्यारा गीत है यह।

प्रेम में उलाहना का भी अपना ही रस है ।प्रेमी-प्रेमिका अक्सर एक-दूसरे को उलाहना देते हैं । यह उलाहना रोष व्यक्त करने की नहीं बल्कि उपेक्षा किए जाने पर स्वाभाविक प्रक्रिया है। कविता ‘अभिव्यक्त करो’ एक ऐसी ही चिंतायुक्त उलाहना है ।

__’तुम/ कहते हो न/ कि/ झूठा ,बेवफा नहीं हूं मैं /पर ये जो हर राज़/ तुम/ छुपाते हो न मुझसे /…….दूर कर देती है मुझे तुमसे।

“अफसोस”_’ आदमियों की भीड़ में /इंसान की इंसानियत के/ खो जाने का अफसोस/ कई मुखौटों के बीच/ अपनी ही शख्सियत के/ मिट जाने का अफसोस…
गला काट प्रतिस्पर्धा के इस दौर में बुरी प्रवृत्तियों का हावी होना और इस आपाधापी में अपने मूल व्यक्तित्व का बदलते जाना अफसोसनाक तो है ही।
कवयित्री सामाजिक बदलाव को बहुत सूक्ष्मता से अनुभव करती हैं। समाज में एक स्त्री को सदैव संघर्ष करते देखा गया है। अपने अस्तित्व का संघर्ष ,अपने अधिकारों के लिए संघर्ष, अपने सम्मान के लिए संघर्ष ।पितृसत्ता ने सदैव दोयम दर्जे पर रखा स्त्री को। किंतु बदलती परिस्थितियों में अब स्त्री स्वयं को भावनात्मक रूप से सुदृढ़ कर रही है।

_ “तुम्हारी फ़ितरत से/ इस कदर वाकिफ़ हो गई हूंँ/ कि अब न तुम्हारे मान जाने पर खुश होती हूंँ/ और न रूठने पर दुखी ही_

कविता “लकड़ी” में दार्शनिक भाव उभर कर आए हैं। ‘लकड़ी’ हमारे जीवन के प्रारंभ से लेकर अंत तक, हमारे सहचर्य में रहती है। एक निर्जीव किस तरह से हमारे जीवन का महत्वपूर्ण अंग हो जाता है ,शायद ही हम कभी गंभीरता से इस पर विचार करते हैं।
शीर्षक वाली कविता पढ़ने का सदैव एक आकर्षण बना रहता है ।पाठक उस कविता को ढूंढ- ढूंढ कर पड़ता है ।किसी संग्रह का शीर्षक एक अहम हिस्सा होता है। “धड़कनों का संगीत” लव आजकल की तर्ज़ पर प्रारंभ होती कविता गंभीर होती जाती है और प्रेम की अद्भुत परिभाषा देती नज़र आती है।

_प्रेम क्या है / जहाँ त्याग और समर्पण है/ जहांँ बिना कुछ कहे एक दूसरे की भावना समझ लेते हैं /जहांँ आकर शब्द /प्रायः शेष हो जाते हैं/ और रह जाता है केवल धड़कनों का संगीत__बहुत सार्थक विवेचना।

इसी तरह शीर्षक “जिद है जीने की” कविताएँ सामाजिक सरोकार की कविताएं हैं। कवयित्री सामाजिक विसंगतियों पर अपनी कलम चलाने से नहीं चुकी हैं। जिनके लिए जीवन में जहाँ प्रेम एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, उत्साहित, आह्लादित करता है,जीवन जीने का उद्देश्य है , वहीं सामाजिक परिपेक्ष्य में बदलते मानवीय मूल्यों के प्रति वे चिंतातुर भी हैं।
एक प्यारे गीत से इस अंश का प्रारंभ होता है, जहां शहरों की तुलना गांव के स्वरूप, अपनत्व व गांव की स्मृतियों से की गई है_’शहरों के घर पक्के होते कच्चे रिश्ते नाते हैं/ दुख की बदरी किसी पे छाए खुशियों के न छाते हैं/ यहां न झरनें नदियां पोखर, यहांँ न चलती नाव है /इससे अच्छा गांव है_
भारत का एक बड़ा हिस्सा वनाच्छादित है। इन वनों में रहने वाले आदिवासियों के संघर्ष से इतिहास भरा पड़ा है। भारत के ये मूल वासी आज भी संघर्षरत हैं। संसाधनों के अभाव में जीने वाले भोले आदिवासी किस तरह से लूटे जाते हैं, इसके उदाहरण भरे पड़े हैं । नागरिकों के मौलिक अधिकार इन आदिवासियों के भी तो मौलिक अधिकार हैं ।कविता “आदिवासी लड़की” में सम्मानीय जीवन जीने के संघर्ष की कथा- व्यथा है। कविता की पंक्तियां यक्ष प्रश्न की तरह अंकित हो गई हैं।

_ ‘क्या इस सभ्य सुसज्जित समाज में /हासिल कर पाएगी /वह ऐसी दुनिया /दुख दर्द शर्म मायूसी से उठकर/ क्या एक पलाश का फूल /शोभा पा सकेगा/ एक स्वस्थ सम्मानित माहौल में?’

कविताएं “समझती हूं मैं”,”चिड़िया”, “वह लड़की”, “दिन”, “पगली औरत”, “पूछ रही है निर्भया” स्त्री विमर्श की कविताएं सामाजिक असमानता और स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराधों का ब्यौरा हैं । आश्चर्य होता है! भारत का सभ्य समाज स्त्री के प्रति अपराधों के बढ़ते आंकड़ों से स्तब्ध क्यों नहीं है ?:न ही वह चेत रहा है। घर बाहर किसी भी क्षेत्र में आज भी दोयम दर्जे की मानसिकता से समाज उबर नहीं पाया है। कवयित्री समाज में हो रहे इस भेदभाव के प्रति मुखरता से अपना पक्ष रखती हैं।
इसके अतिरिक्त “कश्मीर की पाती”, “विकास यात्रा”, “बाढ़ के छह दृश्य” कविताएं देश की आंतरिक अस्थिरता तथा प्राकृतिक आपदाओं के प्रति चिंतन पर कविताएं हैं जो कि कवयित्री के चिंतन के व्यापक फलक को इंगित करती हैं, तथा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देश की परिवर्तित होती स्थितियों का जायज़ा लेती हैं।
कविता “आधुनिकता” हमारे तथाकथित आधुनिक होने के दर्प को भलीभांति विश्लेषित कर रही है__

‘आधुनिकता की ओट में/ संयुक्त परिवार टूट रहे हैं /व्यस्तता के कारण बच्चे /हॉस्टलों में पढ़ रहे हैं/ और बूढ़े मां-बाप/ एफडी के मेच्योरिटी अमाउंट की तरह/ भुनाए जा रहे हैं।

ये पंक्तियां देश की छोटी व महत्वपूर्ण इकाई के विघटन को बहुत ही सूक्ष्मता से और मार्मिक ढंग में व्यक्त करती हैं, और यह आज का यथार्थ है।
बीते वर्षों देश ने अनेक दुर्घटनाओं का सामना किया । महामारी के साथ श्रमिकों का पलायन और देश भर में मृत्यु का तांडव मचा रहा। शीर्षक “तुम कहां छुपे हो ईश्वर” खंड में कविता “सोचा न था” एक त्रासदी से प्रारंभ हो बहाली की सकारात्मकता लिए हुए है। इस बहाली के साथ संचेतन की आवश्यकता की कमी खल रही है ।अंतिम पंक्तियों में अवश्य ही एक संचेतना का भी उल्लेख होना था।

“तुम कहां छुपे हो ईश्वर”__ लंबी- लंबी कोलतार की सड़कें /बन गईं हो जैसे जहन्नुम का रास्ता /पैदल मीलों चलते /छाले भी कराह के पुकार उठे /कंधों पर सिर का बोझ /कभी इतना भारी न लगा….. खून से लथपथ मांँ के गर्भ से निकल/ इक्कीसवीं वीं सदी नें कभी भी/ आंखे ना खोली होंगी इस कदर /शहर के शहर मुंँह उठाए /चल पड़े हैं गांव की ओर__

इस दशक का सबसे ह्रदय विदारक दृश्य था, श्रमिक वर्ग का पलायन। ईश्वर से प्रश्न पूछना लाज़मी हो जाता है, जब देश की सत्ता ही मूकबधिर ,तटस्थ भाव से यह सब घटित होते देखती रहती है।
आरती जी ने इस संग्रह की कविताओं में तमाम उन विषयों को सिर्फ छुआ ही नहीं बल्कि सशक्त रूप से अभिव्यक्त भी किया है जिनमें देशकाल परिस्थितियों पर चिंतन के साथ-साथ गंभीरता से विमर्श भी शामिल है ।
आप अन्य विधाओं में भी सिद्धहस्त हैं ,अतः मुक्त छंद की कविताओं में आपके भावों को स्वच्छंद उड़ान के साथ अनुशासित भाषा तथा आपकी मौलिक शैली जिसमें बिंब, प्रतीकों और रूपक का संयोजन कविताओं को स्तरीय बनाता है।
जीवन के मूलभूत मूल्यों का मूल्यांकन करती ये कविताएं, भावना ,मानवता के पक्ष में खड़ी समाज के प्रत्येक पक्ष को उद्वेलित करती हैं। प्रेम मानवता और अहिंसा का संदेश देती इन कविताओं में कवि की संवेदनशीलता तो उभरी ही है साथ ही सामाजिक दायित्व बोध भी मुखर हुआ है।
डॉक्टर आरती कुमारी जी को इस संग्रह की बहुत-बहुत बधाइयां देती हूं और उसके साथ ही आने वाले लेखन के लिए शुभकामनाएं प्रेषित करती हूं।

■कवयित्री संपर्क-
■80845 05505

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