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कुछ जमीन से कुछ हवा से : पूछीये परसाई से – विनोद साव
लेखक बनने से पहले जिज्ञासाएं तो कई होती थीं पर समाधान करने वाले सुयोग्जन कहाँ मिलते. ऐसे में घर में आने वाले दैनिक अख़बार देशबन्धु ने मेरे जैसे अनेक जिज्ञासुओं की जिज्ञासा को शांत किया. इस अख़बार के अवकाश अंक में हर रविवार को ‘पूछिए परसाई से’ स्तम्भ छपा करता था. यह स्तम्भ १९८३ से १९९४ के बीच ग्यारह वर्षों तक छपा. जिसमें दुनियां जहान से पूछे गए सामान्य प्रश्नों के रोचक उत्तर देते थे हरिशंकर परसाई. वे अपनी विदग्ध शैली में अपने वैश्विक ज्ञान का भंडार खोल देते थे. जिसमें परसाई प्रश्न कर्ताओं को विश्व गुरु लगा करते थे. अपने समय के एनसाइक्लोपीडिया परसाई आज के विकिपीडिया की तरह थे जबकि उस समय गूगल नहीं था. विडम्बना यह है कि हम परसाई की व्यंग्य-रचनाओं और विचारधाराओं पर तो बातें कर लेते हैं पर यह स्तम्भ जो परसाई की लेखकीय प्रगल्भता का सबसे बड़ा प्रमाण था जिसमें वे सही मायनों में लोकशिक्षण और जनमत निर्माण कर रहे थे, इस पर साहित्यकारों के बीच कभी कोई वैचारिक चर्चा नहीं हो पाती… एक बार मैंने कोशिश की थी एक वर्ष परसाई जयंती में ‘पूछिए परसाई से’ स्तम्भ पर ही अपने वक्तव्य को केन्द्रित किया था. देशबन्धु का यह स्तम्भ राजकमल प्रकाशन से छप कर आया तो ‘पूछो परसाई से’ हो गया. खैर… राजकमल प्रकाशन से छपी परसाई की यह दुर्लभ कृति जब मेरे हाथों आई तो पाया कि अपनी युवावस्था में परसाई जी से पूछे गए पांच प्रश्न मेरे भी इसमें समाहित हैं.. वही आज मैं आप लोगों के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ.
▪️ दुर्ग साइंस कॉलेज में परसाई जन्मशती पर हुए कार्यक्रम में व्यंग्यकार विनोद साव
सवाल मेरे और जवाब परसाई के:
प्रश्न-१ (१३ नवम्बर १९८३) क्या आप एलेक्सेंडर सोल्जेनेत्सिन के बारे में बता सकते हैं?
उत्तर : एलेक्सेंडर सोल्जेनित्सिन रुसी लेखक हैं? उनका सबसे प्रसिद्द उपन्यास ‘कैंसर वार्ड’ है उनकी रूस में कई मुद्दों को लेकर आलोचना होती थी. उन पर मुख्य आरोप यह था कि वे साम्यवादी व्यवस्था के विरोधी हैं. वे रूस के विरुद्ध दुष्प्रचार करते हैं. वे चोरी से अपनी पाण्डुलिपियां पूंजीवादी देशों में भेजकर छपाते हैं. वे पूंजीवाद के समर्थक हैं और सी.आई.ए. के दलाल हो गए हैं. फिर भी रूस से उन्हें निकाला नहीं गया. उन्हें कोई सजा भी नहीं दी गई. पर वे खुद रूस छोड़ गए. पहले वे ब्रिटेन पहुंचे. वहां से अमेरिका चले गए और वहीँ बस गए. अमेरिका ने कुछ समय तक उनका उपयोग रूस विरोधी प्रचार के लिए किया. पर रूस छोड़ने के बाद उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण लिखा नहीं. अब उनके बारे में कुछ सुनाई नहीं देता. बोरिस पास्तरनेक के बाद सोल्जेनित्सिन दूसरे महत्वपूर्ण लेखक हैं जिन्हें लेकर दुनियां के साहित्य संसार में रूस में लेखक की स्वाधीनता पर विवाद खड़ा हुआ. पास्तरनेक के उपन्यास ‘डॉक्टर जिवागो’ पर नोबेल पुरस्कार दिया गया था.
प्रश्न-२ : (१३ मई १९८४) दार्शनिक प्लेटो के लिए ‘अफलातून’ शब्द क्यों लगाया जाता है?
उत्तर : प्लेटो को ‘अफलातून’ अरबों ने कहा था. अब हमारी भाषा में प्लेटो का यह नाम, विशेषण बन गया है. कहते हैं ‘अमुक आदमी बड़ा अफलातून बनता है.
प्रश्न-३ : (८ जुलाई १९८४) खुशवंत सिंह द्वारा पद्मभूषण लौटाना देशद्रोह है या उनका सठिया जाना?
उत्तर : खुशवंत सिंह द्वारा पद्मभूषण लौटाना देशद्रोह नहीं है. स्वर्णमंदिर में सैन्य कार्यवाही का विरोध करना भी देशद्रोह नहीं. खुशवंत सिंह काफी जिम्मेदार पत्रकार नहीं हैं. उनके कालमों में फूहड़ और गंदे लतीफे बहुत होते हैं. वे अवसरवादी हैं. वे लगातार अकाली आन्दोलन और उग्रवादियों के खिलाफ लिखते रहे हैं. उन्होंने यह भी लिखा था कि मेरा नाम आतंकवादियों की हिट लिस्ट में है. वे सरकार से सख्ती की बार बार अपील करते थे. मगर जब सरकार ने सख्ती की तब वे उसके विरोधी हो गए.
खुशवंत सिंह की कोई स्पष्ट विचारधारा नहीं है. वे अंधे साम्यवाद विरोधी और रूस-विरोधी हैं. दूसरे वे अवसरवादी हैं. वे १९७५ से इंदिराजी के चमचे कहलाते रहे हैं. वे खुद गर्व से लिखते थे कि “मैं इन्दिरा गाँधी का चमचा हूँ.” इसी चमचा गिरी का इनाम ‘पद्मभूषण’ और राज्यसभा की सदस्यता है. पर अब इंदिरा जी के दरबार में उनका अवमूल्यन हो गया. सुना है वे मेनका के साथ हैं. पद्मभूषण लौटाना कोई बड़ा त्याग नहीं है, विरोध का प्रतीक है. दूसरे वे आतंकवादियों से डर गए. भिन्डरावाला के मरने से आतंकवाद ख़त्म नहीं हुआ है, अभी है. खुशवंत सिंह ने जान बचाने का यह तरीका अपनाया पर वे राज्यसभा की सीट से चिपके हैं.
प्रश्न-४: (११ फ़रवरी १९९०) विवेकानंद के विचारों से स्कूल-कॉलेज के छात्रों को अधिक प्रभावित होते देखा, प्रौढ़ और वृद्ध व्यक्तियों को नहीं. विवेकानंद की मृत्य मात्र ३८ वर्ष की उम्र में हुई. क्या उनके विचारों की तरुणाई से ही युवा वर्ग सम्मोहित होता रहा है?
उत्तर : महान प्रतिभाओं और महान कार्य करने वालों के लिए उम्र का सवाल नहीं है. ईसा ३२ साल में मरे और शंकराचार्य की मृत्यु भी ३२ साल में हुई. ब्रिटेन में विलियम पिट 24 साल की उम्र में प्रधानमंत्री हो गया था. विवेकानंद हिन्दू पुनरुत्थानवादी और पुरातनवादी नहीं थे जैसा कि कुछ लोग उन्हें बताते हैं. वे भारतीय नवजागरण के नेता थे और क्रान्तिकारी चेतना संपन्न. समतावादी समाज की कल्पना करते थे. उन्होंने जो लिखा है और कहा है इससे मालूम होता है वे शोषण की व्यवस्था के कट्टर विरोधी थे. उनके कई कथन तो किसी बड़े मार्क्सवादी क्रान्तिकारी के कथन की तरह हैं.
प्रश्न-५: (१० नवंबर १९९१) शरद जोशी ने अपने लेखन को व्यंग्य की दौडधूप बताया है. कृपया स्पष्ट करें?
उत्तर: मैं नहीं जानता कि शरद जोशी ने इसे किस अभिप्राय से कहा. शायद इस कारण कि वे बहुत लिखते थे. वह रोज नवभारत टाइम्स के लिए लिखते थे. एक से अधिक टीवी सीरियल के स्क्रिप्ट लिखते थे. यह एक तरह की दौड़ धूप ही थी. शरद बहुत ही प्रतिभावान लेखक थे. शरद का विशिष्ट व्यक्तित्व था. लिखने में वह साहसी था. खतरे उठाता था. वह स्थितियों पर तुरंत प्रतिक्रियाएं करता था. विडंबना को पकड़ता था. छोटे छोटे चुटीले वाक्य, मौजू मुहावरे, तीखी भाषा उसके गद्य को शक्तिशाली बनाती थी. सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि उसने अपनी स्वीकार की. उसने विपुल संख्या में कहानियां और व्यंग्य लिखे. बहुत समर्थ लेखक था शरद.
▪️ विनोद साव
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