लघुकथा

4 years ago
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●जूते का फ़ीता
-डॉ. अंजना श्रीवास्तव

क्या सच में वैज्ञानिक युग आ गया है। चाँद पर जाने की बात सुन रहे हैं। अणु बम परमाणु विस्फोट की बात भी सुनाई दे रही है। ये हवाई विस्फोटक है। लोग बहुत खुश हैं वाह क्या सोच है….. वाह क्या वैज्ञानिक अविष्कार है। हम एक नई दुनियाँ बसाएंगे। आज हर आदमी ऊपर देख रहा है निगाहें आसमान पर टिकी हुई हैं। नीचे देखने की फुरसत किसी को नहीं है। अरे भाई साहब…… कभी-कभी धरातल पर भी देख लिया करो। कहीं पैर डगमगा न जाए। सन्तुलन खो गया तो औंधेमुँह जमीन पर गिर जाओगे। अविष्कार धरे के धरे रह जाएंगे। जरुरत पहले पैर को सन्तुलित करने की है। जूते का फीता तो ठीक से बाँध नहीं पा रहे हो और उड़ने की बात सोच रहे हो। पहले जूते की फीता बांधकर चलना तो सीख लो।
आप सोच रहे होंगे कि आज के प्रगतिशील समाज में कैसी बात कर रहे हैं। हाँ मैंने भी ऐसा ही सोचा था। मगर एक दिन मैं स्वयं हिल गयी जब एक प्रकरण मेरे सामने आया। दुनियाँ का एक अनकहा यथार्थ देखने को मिला। जिसने सोचने पर बाध्य कर दिया कि आज भी ऐसे उदाहरण हैं जो रुढ़िगत परम्परा संस्कार को पाप पुण्य, शुभ अशुभ के नाम पर खोटे सिक्के की भाँति चला रहे हैं। नैतिकता के नाम पर चलने के लिए बाध्य कर रहे हैं। उस नैतिकता की स्थापना कब हुई कैसे हुई, उसकी आवश्यकता क्यों पड़ी होगी? मालूम नहीं है? मगर यह जरुर समझ में आ रहा है। परम्परा के माध्यम से स्वर्ग के सीट रिजर्व करवाने और नरक के द्वारा बन्द करने के लिए औचित्यहीन परंपराओं का विकास हुआ होगा। पाप पुण्य, शुभ अशुभ के मापदण्ड मानवता के आधार पर निर्मित किए गए होंगे। तभी तो लोग भूतकाल की परम्पराओं को सम्मान अभिमान समझ कर आज भी हस्तांतरित करते जा रहे हैं और बड़े गर्व से कह रहे हैं यह हमारे समाज परिवार के संस्कार हैं उसको मानना अिनवार्य है और साथ ही साथ इस अनिवार्यता को नैतिकता व धार्मिकता के आधार पर दावा ठोक कर समझा रहे हैं।
एक ऐसी ही घटना ने मुझे हिला दिया और सोचने पर मजबूर कर दिया कि आज के जमाने में क्या ऐसा सम्भव है? क्या वैज्ञानिक युग में ऐसी दकियानुसी मान्यताओं का अस्तित्व है? मैं पुलिस विभाग में परिवार परामर्शदात्री के रुप में कार्य कर रही हूं। जिस परिवार से सम्बन्धित झगड़ों का निपटारा किया जाता है। थाने में एक ऐसा प्रकरण आया जिसमें “पति पत्नी के मध्य काफी वैचारिक मतभेद थे। तनाव चरम सीमा पर पहुँच चुका था। पति का आरोप था कि पत्नी उसका कहना नहीं मानती है। देर तक सोती है नहाकर बाहर रंगोली नहीं डालती। समय पर टीफिन बनाकर नहीं देती। बच्चों पर ध्यान नहीं देती…… आदि अनेक सामान्य व छोटे-छोटे आरोप थे। जो पति पत्नी के मध्य अकसर हो जाते हैं। पत्नी से जब पूछा” क्यों थाने में आयी हो तुम्हें पति से क्या शिकायत है” पत्नी का जवाब था कि पति ने उसे बहुत बुरी तरह से मारा। सिर को दिवाल में पटक दिया….. हाथ मरोड़ दिया।” मेरे यह पूछने पर उसने ऐसा क्यों किया…. वह सिर्फ चुप रही। पति से यह पूछने पर कि तुमने ऐसा क्यों किया। तुमने उसे मारा तो उसने स्वीकार किया कि पत्नी के साथ मारपीट हुई। यह पूछे जाने पर क्यों मारा…….. पत्नी ने ऐसा क्या गुनाह कर दिया था जो इतना मारने की आवश्यकता पड़ गयी। पति का जवाब था…“उसने मेरे जूते का फीता नहीं बाँधा था।
यह सुनकर मैं अवाक रह गयी कि जूते का फीता न बाँधने पर किसी को इतनी बड़ी सजा भी मिल सकती है। क्या वह पति अपने जूते का फीता स्वयं नहीं बाँध सकता था? मेरे यह पूछे जाने पर कि “तुम स्वयं अपने जूते के फीता नहीं बाँध सकते हो” लड़के का कहना था कि “यह पत्नी का धर्म हैं, वह फीता बाँधे। यह हमारे परिवार की परम्परा है। उसने परिवार की परंपरा को तोड़ा। इस कारण वह मार खाने लायक है।” यह कैसी सोच है?
पत्नी स्वीकार कर रही थी कि मैंने जूते का फीता नहीं बाँधा। मुझसे गलती हो गयी। सुबह इतने अधिक काम होते हैं। ऑफिस जाने के लिए टीफिन बनाना, छोटे-छोटे बच्चे हैं उनको देखना नहीं कर रंगोली देना। इतने अधिक कामों में वह जूते का फीता बाँधना भूल गई। इस घटना ने मेरे रोंगटे खड़े कर दिए कि औरतों के प्रति आज भी ऐसी धारणा है। जो समाज पर कलंक है और औरत बेचारी बनकर स्वीकार कर रही है। साथ ही साथ पिट भी रही है।

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