लघुकथा
●ख़त
-शुचि ‘भवि’
कब जाओगे? मयंक के फ़ोन रखते ही नीरू ने धीरे से पूछा था। नीरू को गले लगाकर मयंक ने उसका माथा चूमते हुए कहा था ,तैयार रहने कहा है, कभी भी बुला सकते हैं।
नीरू ने मयंक को कस कर पकड़ लिया और कहा, नहीं जाने दूँगी।
आँसुओं को साथ मिला, उसने कपड़े जोड़े और तमाम ज़रूरत की चीज़ें करीने से लगा दीं।
मयंक ने नीरू की नौकरी की व्यवस्था, विवाह के चंद महीनों बाद ही कर दी थी। नीरू ने एम.कॉम.की पढ़ाई की हुई थी और पास की ही फ़ैक्टरी में एकॉउंटेन्ट की जगह खाली थी। नीरू और मयंक का विवाह माता-पिता ने कराया था,मयंक की पोस्टिंग बॉर्डर पर थी और उसने अब तक केवल देश से ही प्यार किया था।विवाह उपरांत ही उसे स्त्री प्रेम का प्रथम अनुभव हुआ था।छुट्टियाँ ख़त्म हो गयीं थी और अब माँ पुकार रही थी।
नीरू का नौकरी का मन नहीं था मगर मयंक दूरदर्शी था।माता-पिता के ख़िलाफ़ जाकर उसने नीरू को व्यस्त रखने के लिए यह निर्णय लिया था।घर की खेती व ज़मीन जायदाद इतनी थी कि सात पुश्तें आराम से खा सकती थीं।
नीरू के प्रेम में सराबोर, विवाह के बाद, बॉर्डर पर ड्यूटी करते वक़्त मयंक को जब नीरू की चिंता हुई तो उसने अपनी डायरी में कुछ लिखा और अपने दोस्त मृणाल को वह डायरी देते हुए कहा कि इसे तब ही पढ़ना जब मुझे माँ अपने आँचल में सुकून की नींद सुला दे।मृणाल ने मयंक को धक्का देते हुए कहा , क्या कुछ भी बोलता रहता है। सात साल से बॉर्डर पर है, कभी ऐसा नहीं बोला, आज क्या हुआ है?
नीरू बहुत सीधी और सरल है, उसके लिए चिंतित हूँ, शायद विवाह करना ही नहीं था मुझे।
डायरी जब मृणाल ने तिरंगे में लिपटे मयंक के सामने खोली तो अपने आप ही उसका हाथ मयंक को सैल्यूट करने के लिए उठ गया था।
घर के सदस्यों के सामने मृणाल ने डायरी पढ़ी।
मृणाल, मेरे दोस्त, मेरे भाई,
तुम जब इसे पढ़ रहे होगे तब मैं नहीं होऊँगा।मेरे माता-पिता का ख़याल रखना और अपने भांजे का भी।नीरू से अच्छी बहन तुम्हें नहीं मिलेगी।यदि कल उसे कोई पसंद आये तो उसकी विदाई का जिम्मा मैं तुम्हें देता हूँ। कोई भी बेटा माँ के बिना नहीं रह सकता इसलिए अपने भांजे को भी नीरू के साथ ज़रूर भेजना।मेरे माता-पिता शायद वारिस की चाह में आपत्ति उठाएँ, पर तुम दृढ़ रहना।बहुत सारी ज़िम्मेदारियाँ दे दीं न तुझे, माफ़ कर देना यारा।
ढेर सारा प्यार
तेरा मयंक
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