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लघुकथा : दीप्ति श्रीवास्तव
🌸 इंतज़ार
– दीप्ति श्रीवास्तव
[ जुनवानी, दुर्ग, छत्तीसगढ़ ]
‘सबरी ओ सबरी …कहां है बेटा’
‘मां मेरा काल चलता रहता है तब डिस्टर्ब मत किया करो ‘
‘अरे इसमें इतना नाराज़ होने की क्या बात ‘
‘वर्क फ्रॉम होम का अर्थ यह नहीं कि ड्यूटी समय में घरेलू झंझट लैपटाप का माइक्रो फोन भी सुने कितनी बार समझाया है।’
वह अपनी बिटिया को जब बहुत प्यार आता तब बेटा सम्बोधित करती अपना कहने एक बेटी है वैसे उसके पति के दो लड़के और है । मां की अधीरता देख आखिरकार पूछ ही लिया
‘क्या है मां ‘
‘देख तेरे पिताजी ने एक और रिश्ता सुझा कर फोन पर ताकीद भी कर दी है इस बार ‘ना नहीं ‘ ।’
हर महीने खर्चा भेजने वाले पिता की ना का अर्थ वह अच्छी तरह जानती थी ।
मां से बोली उस आदमी से कह दो यह एहसान करने की जरुरत नहीं अब तुम्हारी बेटी आई टी कम्पनी में नौकरी करती है ।
‘ बेटा वो तेरे पिता है ।’
‘कभी सुख दुख में न झांकने वाले “पिता ” ! अच्छा किया याद दिलाकर सिर पर पिता का साया है।’
उस समय कहां थे जब वह आवारा लड़का रोज़ इक तरफा मोहब्बत का इजहार कर पीछा करता कभी साइकिल पंचर करता , तो कभी घर तक पहुंच दरवाजा खटखटाया करता । महीनों दहशत में गुजारे हमने घर बदलने पर जान बची तब भी पिता से सहायता की करूण गुहार लगाई थी आपने ।
‘अपनी बेटी से कहो कालेज जाना छोड़ दें प्राइवेट परीक्षा दे ।’ अपने दूसरे परिवार के साथ मस्त रहने वाले के नाम पर आज भी मां आप मांग में सिंदूर लगा उनकी दुआ सलामती की कामना करती हो । सबरी बड़बड़ाते हुए बोली और आप कहती ह़ो यह सिंदूर हमारा सुरक्षा कवच है । अकेली औरत देख भेड़िया बन झपटने वाले तैयार बैठे होते हैं जब उनका वश नहीं चलता तब बदनाम करने के लिए माला जपते रहते हैं।
गांव की हवेली के हिस्से बंटवारे के समय हम लोगों को अपने साथ लेकर गये थे कानून पत्नी हो ना ! साथ ही अपने छोटे से बेटे को आपके सुपुर्द कर सम्पत्ति के अधिकारिक वारिस घोषित कर दिया, वह दिन पिता के दर्शन का अंतिम दिन था । और आज भी तुम्हारी उदासी इन नयनों में भर अपलक उनके आगमन का इंतजार करती थकती नहीं । हर करवां चौथ पर अपने सुहाग की लम्बी उम्र की दुआएं मांगती हो क्यों ?
‘यूं ही हर महीने पैसे भेजते रहे ।’
‘भावनाओं को पैसों से तौलने वाले से कह दो उनके चुने वर का वरण सबरी को स्वीकार नहीं ।’ अपनी भड़ास निकाल सबरी अपने लैपटॉप पर काम करने व्यस्त हो गई। उसके पास भी काश कोई होता मन के जज्बातों को समझने वाला….
कर्त्तव्य विमूढ़ हो वह ठगी सी अपने पैरों पर खड़ी बेटी में सबला स्त्री को देख गर्व से भर उठी । आज की स्त्री का निर्णयात्मक कदम भविष्य की राहों से कांटे हटाने में सक्षम है। यह तपस्या हिमालय पर नहीं एक सामाजिक परिवेश से जूझते हुए एक मां ने की थी जिसका फल आगामी पीढ़ी को स्वावलंबी बना जीवन महकने लगा।
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