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■छत्तीसगढ़ी में पढ़ें-छेरछेरा. ■छेरिक छेरछेरा मरकनीन छेरछेरा. -दुर्गा प्रसाद पारकर
छत्तीसगढ़ी म एक ठन कहावत हे ’पुस ह फूस ले भगा जथे‘। ए कहावत ह सोला आना सिरतोन आय। लुवई-टोरई म कोनो ल हूंकारु भरे के फुरसद नइ राहय। खेत खार ह ओन्हारी म गद लागथे, भर्री भांठा ह भाटा पताल म भदराए रहिथे। ओइसने लइका मन ल जउने करा देख ले उही मेर घरघुंदिया (फूतकील के बनाथे) म भुलाए रहिथे। जाम भांटा के भात-साग रांध के घरघुंदिया म सगाना पगाना खेलथे अऊ उही म झगरा घलो होथे। ताहन चार दिन के जिनगी कस घरघुंदिया ह उझर जथे। ओइसे तो छत्तीसगढ़ म छेरछेरा ल पुस महीना के अंजोरी पाख के पुन्नी के दिन मानथे फेर लइका मन बर कोने दिन लागे न बादर। जभे संघर गे तभे छेरछेरा। लइका मन नकलची होथे। तभे तो मुरदार संख के जघा पिरौंरी छुही ल मुहूं-कान म चुपर के सम्हरथे। कोइला ल घोर के मेछा बनाथे। ताहन लइका मन एक घरघुंदिया ले दुसर घरघुंदिया छेरछेराए बर जाथे-
छेरिक छेरा, छेर मरकनीन छेर छेरा
माई कोठी के धान ल हेर हेरा
सुपा के दफड़ा, चरिहा के गुदुम अऊ लकड़ी फाटा के मोंहरी बजावत जब बिधुन हो के नाचथे तब लइका मन ल यहू पता नइ राइय के काखर रेमट बोहावत हे त काखर पेंट भोसकत हे। छेरछेरा कार्यक्रम म संघरे खातिर लइका मन चिरई चिरगुन मन ल घलो नेवता देथे-
अगरहीन ल नेवतेंव
बगरहीन ल नेवतेंव अऊ बन के चांटी
पीपर तरी के खुसरा नेवतेंव
ओखरो बड़े बड़े आंखी
छत्तीसगढ़ म कतनो जघा छेरछेरा पुन्नी के दिन मेला घलो भराथे। दुर्ग जिला म सीली घाट (ननकðी) के मेला ह अघात प्रसिद्ध हे। जऊन ह तीन दिन ले चलथे। एक समे के बात हे जब धरती म घोर अंकाल परे रीहिस। अन्न, फल अऊ औषधि नइ उपजीस। धरती के जीव मन भूख के मारे हलाकान होगे। सब्बो कोती त्राही-त्राही मचगे। ऋषि मुनि मन जब भूख म थर्राइस तब उमन आदि शक्ति ल पुकारिन। इखर भक्ति भाव ले प्रसन्न हो के आदि शक्ति ह शाकम्बरी देवी के रुप म प्रकट होइस। शाकम्बरी देवी ह मुनि मन के बात ल जान डरिस। अन्न, फल-फूल अऊ औषधि के भंडार दे के उंखर भूख अऊ पीरा ल हर लीस। तभे इही घटना के सुरता म छेरछेरा मनाए जाथे। पुस महिना म धान के कटोरा ह सिघियाए रहिथे। धन-धान्य ले छत्तीसगढ़ मण्डल (दाऊ) लागथे। तभे तो परेवा, सुआ, साडू, हंस अऊ बगुला मन अपन-अपन आवाज ले शाकम्बरी देवी के मनोरंजन करथे-
कनक भुवन मन रंजन माता
पुस परेवना बोले
साडू बोले सुअना बोले
हंस बगुलवा बोले
तरोई, तुमा कस जऊने मिले जय उही ल घोलघोला बना के नार बियार ल कनिहा म बांध के एदइसन गावत नाचथे- ”घोलघोला बिना मंगलू नइ नाचै न, नइ नाचै न नइ नाचै न, घोलघोला बिना मगलू नइ नाचै न। एक झन के पुरथे ताहन दुसर उचाथे। किसान के बखान तो लइका मन बड़ सुन्दर ढंग ले करथे-
हमर देश के चारो मुड़ा
बसे हे किसान ग, नंगरिहा जवान ग
पटका पटोही पहिरे, उही पहिचान ग
खुमरी हमर छत्ता ए, कमरा हमर निगोंटी ए
ओली म धरे हवन, ओही अंगाकर रोटी ए……..
छेरी ह छै$अरी मिल के बने हे याने छै बैरी (काम, क्रोध, मोह, लोभ, तृष्णा अऊ अहंकार) के हरइया मरकनीन (देवी) तुंहर दुआर म आए हन महतारी। माई कोठी के धान ल दे के हमर मन के दुख दारिद ल दुर कर दे। तभे तो छेरछेरइया मन ल माईलोगन मन धान कोदो फल-फूल (शाक के रुप म) दान दे के बिदा करथे। छेरछेरा पुन्नी के दिन छेरछेरा मंगइया मन ल बाम्भन के रुप म अऊ देवइया माईलोगन मन ल शाकम्बरी के रुप म देखे जाथे। तेखरे सेती छेरछेरा पुन्नी के दिन कोनो ल खाली हाथ लहुटन नइ देवय। तभे तो दान करे बर आघु ले जोरा करथे। लइका मन ल छेरछेरइया ले जऊन धान कोदो मिले रहिथे ओखर मुर्रा बदल के सगाना पगाना खेलथे। पहिली जमाना म वस्तु विनिमय चलत रहिस हे। जब पइसा ह चलन म अइस होही तब डोकरी-ढाकरी मन ल हिसाब करे बर परेशानी होइस होही। तब लइका मन ओला एदअसन कही के कुड़कावत रीहिन होही-
नवा पइसा के हिसाब
नइ जानय डोकरी…………..
मुद्रा के चलन के बाद भ्रष्टाचार ह बाढ़िस होही तइसे लागथे। पइसा के महत्व ल लइका मन के मुंह ले बढ़िय ढंग ले सुने जा सकत हे…….
जेखर हाथ म लउठी भइया
ओखर हाथ म भइसा,
बघवा मन सब कोलिहा होगे
देख तमाशा कइसा…….
लइका मन भाव विभोर हो के चिन्ता ले मुक्ति पा के जब नाचत कुदत अघात बेरा हो जाथे फेर बिदा करे बर सुपा म अनाज, भांटा-भाजी के दउव्हा नइ राहे तब असकटा के अपन संगवारी मन ल जाए के बेरा होगे कहिके इसारा करत एदे गीद ल सबो झन गाथे-
कोलकी-कोलकी बइला चराएंव
बइला के सींग म माटी
ठाकुर घर जोहारे ल गेंव
बुचवा हाड़ी म बासी
छेंकत रेहेंव बइला भइया
चढ़ परेंव भांड़ी
भंाड़ी ले कुद के भागेंव
त पाएंव जुच्छा हाड़ी
ओइसे तो दान म कोनो लालच नइ राहय। फेर लइका मन ल ये बात कहां ले समझ आही। नाचत-गावत अपन संगवारी मन ल सावचेत करत रहिथे के एकाद कनिक म नइ मानन।
सुन बुधारु, सुन समारु
सुन केकती के गोठ
दु पइली बिन नइ करंव गोठ…..
छेरछेरा म कोनो भी गाना गाय बर निछिंद रथे। चाहे नचउड़ी पार होय चाहे राऊत के दोहा। लइका मन तो एक के बाद एक दोहा के खरही गांज देथे-
सरसो फूल घमाघम
मुनगा फूले सफेद रे,
बालक पन म केंवरा बदेंव
जवानी पन म भेंट रे।
सबके गोसइन रिंगी चिंगी
मोर गोसइन कुसवा रे,
दू पइसा के गोसइन लानेंव
उहू ल लेगे मुसवा रे।
ए पार नंदि ओ पार नंदि
बीच म कोदो खरही ग,
जागे-जागे सुतले बबा
तोर डोकरी हरही ग।
बात-बात म बात बाढ़े
पानी म बाढ़े धान,
तेल फूल म लइका बाढ़े
फोही म बाढ़े कान।
अतेक नाचे-कुदे के बाद जब बिदाग्री म देरी होथेे तब लइका मन अड़िया के बइठ जथे….
अरन-बरन कोदो दरन
जब्भे देबे तभ्भे टरन……
आगु गांव-गंवई म छेरछेरा पुन्नी के दिन नाच पार्टी वाले मन ”परी“ सम्हरा के हारमोनियम (पेटी) ल टोंटा म ओरमा के तबला ल कनिहा म बांध के (खड़े साज के अनुरुप) छेरछेराए बर जावय। तेखरे देखा सीखी लइका मन घलो छेरछेरावय। जऊन ह अब धीरे-धीरे नंदावत जात हे।
■लेखक संपर्क-
■79995 16642
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