■कविता : विद्या गुप्ता [ दुर्ग छत्तीसगढ़]
3 years ago
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♀ प्रेम की परिभाषा
मैं प्रेम हूं
बचा रहूंगा देह के बगैर
देह के बाद भी तुम्हारे लिए
बह रहा हूं
सृष्टि की शिराओं में झर झर
देखो ठूंठ पर उगी दो पत्तियों में
धरती कर रही है सतत प्रयास
उसे हरा रखने का ,जड़ों के साथ
हवा कर रही है इकट्ठा
कतरा कतरा बादल
धरती की प्यास के लिए
धूप के खिलाफ
स्त्री सह रही है पीड़ा
सींच रही है कोख में
एक वरदान
तुम्हारे लिए
मरकर जन्म लेगी
देगी तुम्हें तुम्हारा बीज
प्रेम के पक्ष में
शिराओं में रक्त का बहना
तो बस होना है
मगर दूध का बहना है
यह प्रेम है
मैं बचा रहूंगा प्रलय के बाद भी
सृजन का बीज संभाले
पृथ्वी पर तुम्हारे लिए
■कवयित्री संपर्क-
■96170 012222
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