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▶️ ….. और अब नितिन गडकरी : जिसने जुबाँ चलाई, वही काम से गया – बादल सरोज
इन दिनों केंद्रीय मंत्री और खांटी नागपुरिये नितिन गडकरी बहुतई भड़भड़ाये हुए हैं। धड़ाधड़ ट्वीट पर ट्वीट कर बिलबिला रहे हैं कि “कुछ लोगों द्वारा दुष्ट राजनीतिक इरादों से उनके खिलाफ कहानियां गढ़कर एक कुटिल अभियान चलाया जा रहा है। मीडिया, सोशल मीडिया में उनके वक्तव्यों को तोड़-मरोड़कर, मनगढंत तरीके से पेश किया जा रहा है।” इन ट्वीट्स के साथ गडकरी कुछ वीडियोज भी साझे कर रहे हैं, जिन्हें बकौल उनके, गलत तरीके से तोड़ा-मरोड़ा गया है। इसी के साथ वे चेतावनी भी दे रहे हैं कि “वे ऐसे लोगो के खिलाफ कार्यवाही करने में हिचकेंगे नहीं।” ऐसा करना भी चाहिए, आखिर वे केंद्र सरकार के कद्दावर मंत्री हैं, सत्ताधारी पार्टी के पूर्व अध्यक्ष भी रह चुके हैं, आरएसएस के अत्यंत करीबी माने जाते हैं। उनके साथ इस तरह की छेड़खानी और धोखाधड़ी होना एक गंभीर बात है। अगर उन तक के साथ ऐसा हो सकता है, तो फिर सलामत कौन है? बहुत जरूरी है कि ऐसे साजिशी गैंग की शिनाख्त कर उसके खिलाफ कार्यवाही की जानी चाहिए। मगर लिखकर रख लीजिये, नितिन भाऊ कोई रपट-वपट नहीं करने वाले, उन्होंने यह लोकप्रिय शेर सुना हुआ है कि : “ये न पूछो कि किस किसने धोखे दिए/वरना अपनों के चेहरे उतर जायेंगे।” उन्हें पता है कि जाँच-वांच हुयी, तो आखिर में उसके सूत्रधार उन्ही के अपने कुनबे के बंधु-बांधव निकलेंगे। उसकी डोरियां खुद मोदी और अमित शाह की अँगुलियों में फंसी दिखेंगी। उस कुनबे के वरिष्ठ और कुनबा प्रमुख के घनिष्ठ होने के नाते गड़करी अच्छी तरह से जानते हैं कि चरित्र हनन, झूठ गढ़न के जरिये मानमर्दन की यह कलाकारी उनके यहां की आजमाई शैली है। दुनिया भर के फासिस्ट अपने विरोधियों के खिलाफ इसका उपयोग करते रहे हैं। आरएसएस ने उसे दुधारा बनाया है : वह विरोधियों के साथ-साथ अपने ही बड़े-बड़ों के खिलाफ भी इसका इस्तेमाल करता रहा है, करता रहता है । पहले यह काम झूठों, कल्पित कथाओं, अर्धसत्यों की अफवाहें फैलाकर किया जाता था। नई तकनीक और सोशल मीडिया के आने के बाद अफवाहों के साथ ट्रॉलिंग – हाथ पाँव धोकर पीछे पड़ना – भी जुड़ गयी है। अब इनके पास बाकायदा सुव्यवस्थित तंत्र – आई टी सैल की सेना है। गडकरी न इसके पहले शिकार हैं, न आख़िरी ; ऐसा कोई बचा नहीं, जिसका नट बोल्ट कसा नहीं।
अटल बिहारी वाजपेयी की निजता को लेकर जितनी भी कहानियां मार्केट में आईं, इन्हीं ने फैलाई। उमा भारती की जाति और नारीत्व को लेकर खुद तब के संघप्रमुख खुद तो बोले ही, जब वे पार्टी की स्वीकार्य नेता थीं, तब उनके कथित निजी जीवन को लेकर अनेक वृतांत इसी कुनबे ने गढ़े और प्रचारित किये। मोदी के कार्यकाल में भी उनके नापसंद बड़े नेता इस तरह की मुहिम का निशाना बने। सुषमा स्वराज जैसी तुलनात्मक रूप से कम विवादित नेत्री भी गालियों का शिकार बनने से नहीं बचीं। लखनऊ की एक मुस्लिम महिला को पासपोर्ट देने में उसके मुस्लिम होने की वजह से पासपोर्ट कार्यालय द्वारा खड़ी की जा रही अड़चनों की शिकायत मिलने पर विदेश मंत्री होने के नाते सुषमा स्वराज ने उसकी मदद क्या कर दी कि आई टी सैल के उकसावे पर ट्रॉल सेना के भेड़िये उनके पीछे पड़ गए। गाली गलौज की वीभत्स और भयानक मुहिम छेड़ दी थी। उनके निजी जीवन तक पर कीचड़ उछाली गयी, जिसकी सफाई देने के लिए उनके पति को सार्वजनिक बयान देना पड़ा था। इस निर्लज्ज मुहिम में उनके खिलाफ क्या-क्या नहीं कहा गया। प्रधानमंत्री तो छोड़िये, कोई मंत्री भी उनके बचाव में नहीं आया। भाजपा और संघ ने भी इसकी आलोचना नहीं की।
अपनों सहित सभी को औकात में रखने की संघ की यह आजमाई हुयी कार्यप्रणाली है। सिर्फ बाहरी ही नहीं, भीतरी असहमतियों के प्रति भी उनका रुख बर्बर है। हरेन पांड्या से लेकर किसी जमाने में आरएसएस के बड़े ख़ास रहे, विहिप के पूर्व महामंत्री प्रवीण तोगड़िया के उदाहरण ताजे हैं। संजय जोशी का मामला भी छुपा हुआ नहीं हैं – जिन्हे भाजपा की कार्यसमिति से हटवाने की हठ पूरी करवाने के बाद ही नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय राजनीति में आने के लिए राजी हुए थे। उनकी सीडी बनवाने की पुण्याई पहले ही की जा चुकी थी। यह राष्ट्रीय स्तर के प्रसंग हैं – प्रदेशों, जिलों में इस तरह की कथाएं अनेकानेक हैं।
ध्वंस की यह परम्परा आज की नहीं हैं। 1980 में भाजपा की स्थापना के बाद से अब तक बने अध्यक्षों में से ऐसा एक भी नहीं हैं, जिसे सम्मान से विदा किया गया हो, जिसे आदर से याद किया जाता हो। अमित शाह के बारे में भी अभी थोड़ा इन्तजार करने की जरूरत है। इसके पहले भाजपा के पूर्वावतार जनसंघ के भी – अटल जी को छोड़ – पंडित मौलिचन्द्र शर्मा से लेकर बलराज मधोक तक इसी तरह अपमानित किये गए। अटल जी कुनबे के बाहर की अपनी लोकप्रियता और संस्थापक अध्यक्ष श्यामाप्रसाद मुखर्जी के कार्यकाल के दौरान ही निधन हो जाने की वजह से बचे – बाकी कोई नहीं बचा।
ताज्जुब नहीं होगा, यदि कल नरेंद्र मोदी और अमित शाह भी इस तरह की बातें कहने की स्थिति में पहुँच जाएँ, क्योंकि एक फासिस्ट विचार पर टिका संगठन व्यवहार में भी मूलतः और अंततः फासिस्टी होता है। उसका एकचालकानुवर्ती सांगठनिक सिद्धांत खुद अपने लोगों पर भी उसी तरह लागू होता है, जिस तरह वह पूरे देश और समाज पर लागू करना चाहते हैं। यही वजह है कि एक राजनीतिक पार्टी के रूप में भाजपा का अस्तित्व ही हास्यास्पद बना हुआ है। दूसरी पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र पर ज्ञान बघारने वाली भाजपा में चुनाव भी मजाक हैं। संगठन का सबसे मजबूत और शक्ति सम्पन्न पदाधिकारी संगठन मंत्री होता है और इसकी नियुक्ति स्वयंभू सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से की जाती है।
नितिन गडकरी की ढिबरी टाइट की जा चुकी है संसदीय बोर्ड से हटाए जाने के बाद से उनकी ट्वीट्स प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गुणगान, उनकी आरती और अभ्यर्थना में कुछ ज्यादा ही भरी हुयी हैं। मगर सवाल किसी गडकरी भर का नहीं है। संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों की दशा उस देश के लोकतंत्र की दशा को प्रभावित करती है। यदि ऐसा उस पार्टी में हो, जो सत्ता में है, तब मसला और गंभीर हो जाता है।
{ लेखक बादल सरोज ‘ लोकजतन ‘ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं. •संपर्क – 94250 06716 }
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