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  • केवल विचारों से नहीं व्यवहार में भी प्रतिबद्ध थे प्रभाकर चौबे – विनोद साव

केवल विचारों से नहीं व्यवहार में भी प्रतिबद्ध थे प्रभाकर चौबे – विनोद साव

2 years ago
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मुक्तिबोध अपने समय में अकेले अकेले से रहने वाले लेखक थे। महाराष्ट्र मंडल, रायपुर के आयोजन में तब यह बताया गया था कि ’मुक्तिबोध के नाम से रखा गया पुरस्कार इस नये राज्य (छत्तीसगढ़) में अकेला साहित्यिक पुरस्कार है।’ उस पुरस्कार को प्राप्त करने वाले प्रभाकर चौबे अपने आसपास अकेले प्रभाकर चौबे ही रहे। मुक्तिबोध सम्मान समारोह के दौरान प्रभाकर चौबे सभा भवन के बाहर अकेले ही मिले तो विनोद शंकर शुक्ल ने कह दिया था कि “चौबे जी! सभा कक्ष से बाहर मत घूमिये नहीं तो आपका सम्मान कोई दूसरा लेकर चम्पत हो जाएगा।’ प्रभाकर जी ने अपनी चिरपरिचित विनोद प्रियता में जवाब दिया कि ’मैंने आयोजकों के सामने अपनी हाजिरी लगा दी है ताकि ऐसी कोई वारदात हो न जाए। रिटायमेंट के बाद ग्यारह हजार रुपयों का पुरस्कार मायने रखता है। लेनदारों को भी बता दिया है कि किस किसका कितना बकाया है यहीं आकर ले जाए।“

वर्ष २०११ में प्रभाकर चौबे जब ७५ बरस के हुए तब उनका सम्मान हुआ था. उस समारोह में सम्मान ग्रहण करने से पहले बड़े आकर्षक दिख रहे थे प्रभाकर जी। पेंट के ऊपर खोंसकर पहना हुआ बढ़िया चेक शर्ट और बाल करीने से सजे हुए थे। सम्मान में बड़ी शक्ति होती है। माइक पर आते ही उन्होंने कह भी दिया था कि ’मुझे पुरस्कार मिलने पर जिन्हें प्रसन्नता हुई उनके प्रति तो मैं आभारी हॅूं ही.. और उनके प्रति भी जिन्हें प्रसन्नता नहीं हुई।‘ तुलसीदास की खल वन्दना की तरह। बड़ी बेबाकी से यह कह दिया था उन्होंने। लेकिन उस दिन महाराष्ट्र मंडल का खचाखच भरा हाल प्रभाकर चौबे की साख और उनकी रचना यात्रा के प्रभाव को प्रमाणित कर रहा था।

प्रभाकर चौबे का जीवन एक साधक की तरह रहा है। उन्होंने जीवन का एक लम्बा कालखण्ड रायपुर में देशबन्धु परिवार के साथ बिताया और रामसागर पारा में निवास किया। देशबन्धु में उनके व्यंग्य कालम ’हॅसते हैं रोते हैं’ लगभग बीस बरसों से ऊपर तक चला होगा। संभवतः यह किसी भी अखबार में अधिक समय तक चलने वाला साप्ताहिक स्तम्भ लेखन भी हो सकता है। यह व्यंग्य का स्तम्भ था। इस स्तम्भ का अगर रजत जयन्ती वर्ष पूर्ण हुआ हो तो प्रभाकर जी के अवदान पर गम्भीर चर्चा होनी थी पर हो नहीं पायी। इस कीर्तिमान को गढ़ने का श्रेय देशबन्धु के सम्पादक ललित सुरजन और प्रभाकर चौबे दोनों को जाता है। ललित जी ने हरिशंकर परसाई के सन्दर्भ में कहा था कि ’अपने तल्ख विचारों के कारण परसाई जी को छापने का साहस तब अखबार नहीं कर पाते थे, पर बाबूजी (मायाराम सुरजन) ने परसाई जी को देशबन्धु और नई दुनिया में खूब छापा और परसाई के लोकशिक्षण से भरे विचारों को जन जन तक पहुंचाया।’ यह बात प्रभाकरजी के लिए भी लागू होती है… और जिस तरह देशबन्धु ने उन्हें अपने साथ हमेशा जोड़े रखा यह एक विचारवान और सम्प्रेषित होने वाले लेखक को मुखरित होने देने का सद्प्रयास है। यह श्रेयस्कर है। देशबन्धु के बारे में यह माना जाता रहा है कि उन्होंने इस तरह के प्रतिबद्ध और सरस लेखकों का जमावड़ा किया और उन्हें स्थापित करके छोड़ा.

प्रभाकर चौबे परसाई की परम्परा के संवाहक रहे. तब देशबन्धु परिवार में इस परम्परा को अपनी पूरी सघनता में देखा जा सकता था। ललित सुरजन, राज नारायण मिश्र और प्रभाकर चौबे की लेखनी और उनके विचारों में परसाई का गहन प्रभाव रहा। ललित सुरजन अपने व्याख्यानों में परसाई का नाम निरन्तर लेते रहे हैं। बाद में राज नारायण मिश्र के राइटिंग टेबल में रखे फोटो स्टेन्ड में परसाई का चित्र भी दिखा था। प्रभाकर चौबे ने अपने कालम का नाम ’हॅसते हैं रोते हैं’ रखा था जो परसाई की पहली किताब का नाम था। परसाई, मार्क्सवाद, वामपंथ और प्रगतिशील आन्दोलन पर उनकी हमेशा आस्था रहीं और वे उनमें हमेशा सक्रिय भी रहे। परसाई ने अपने विचारों के सम्प्रेषण के लिए व्यंग्य को एक शैली के रुप में अपनाया और प्रभाव पैदा किया, ऐसा प्रभाकर चौबे ने भी किया। परसाई की तरह प्रभाकर चौबे ने भी व्यंग्य को विधा नहीं माना लेकिन पाठकों ने उन्हें व्यंग्यकार माना। मुक्तिबोध सम्मान उन्हें प्रदान करते हुए यह बार बार कहा गया कि ’प्रभाकर चौबे व्यंग्य विधा के अत्यंत महत्वपूर्ण लेखक हैं।’

प्रभाकर चौबे एक वरिष्ठ लेखक होने के बाद भी अपने परवर्ती लेखकों की रचनायें पढ़ने और उन पर विस्तार से चर्चा करने की सदाशयता हमेशा दिखलाते रहे हैं। वे हर नये लेखकों की रचनाएं पढ़ने के बाद युवा रचनाकारों को एक अच्छी रचना लिखे जाने के लिए फोन पर बधाई देते थे और रचना पर विस्तार से चर्चा करते थे। यह उनके समकालीन अन्य लेखकों के लिए भी अनुकरणीय है। ऐसे ही फोन पर एक निजी क्षण में उन्होंने मुझसे कहा था कि ’तुम मुझे क्या मानते हो मैं नहीं जानता पर मैं तुम्हें अपना भतीजा मानता हूं.’ तब लतीफ़ घोंघी, त्रिभुवन पांडेय, विनोदशंकर शुक्ल जैसे नामी व्यंग्यकार मुझसे मित्रवत व्यवहार तो करते थे पर उम्र के लिहाज़ से वे थे सभी मेरे चाचा समान.

अमूमन लेखकों में प्रतिबद्धता को लेकर एक भ्रम होता है और वे अपनी प्रतिबद्धता को केवल विचारों से लेकर जोड़ते हैं और बहुत जल्दी इस खुशफहमी में हो लेते हैं कि हम अपने विचारों के प्रति प्रतिबद्ध हैं जबकि वे अपने निजी व्यवहारों में अपने विचारों से भिन्न आचरण कर रहे होते हैं। उनके व्यवहार में उनके विचारों की प्रतिबद्धता की झलक नहीं होती। विचार और व्यवहार का यह एक अन्तर उनकी प्रतिबद्धता में आड़े आता है और वे उस मुकाम पर नहीं पहुंच पाते हैं जहां कि एक प्रतिबद्ध लेखक को पहुंचना होता है। प्रभाकर जी की प्रतिबद्धता जो उनके विचारों में रही लगभग वही उनके व्यवहार में रही। पत्रकारिता और साहित्य जगत की अपनी लम्बी मैराथन दौड़ में वे हमेशा अपनी ट्रैक पर ही दौड़ते रहे हैं। उन्होंने दूसरों की ट्रैक पर अतिक्रमण नहीं किया। अनावश्यक स्वाभिमान और महत्वाकांक्षा की विभीषिका से अपने को बचाये रखा। सुरजन परिवार और देशबन्धु के साथ समर्पण भाव से वे जीवन पर्यन्त जुड़े रहे। साहित्यिक आयोजनों में नेताओं की मौजूदगी उन्हें रास नहीं आई। ऐसे कार्यक्रमों से वे दूर रहे। साम्प्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतों के खिलाफ उन्होंने हमेशा अपनी कलम चलाई और उनका उपहास किया। किसी प्रकार के दुर्व्यसन से वे दूर रहे। प्रकाशन संस्थान से जुड़े रहने के बावजूद वे अनावश्यक पुस्तकें प्रकाशित करवाने का लोभ संवरण कर सके, जिसे आज के लेखकों में एक महामारी के रुप में देखा जा सकता है। अपने ही ट्रैक एण्ड फील्ड पर रहते हुए उन्होंने चौरासी वर्ष का दीर्घ जीवन सफलता से जीया और स्वस्थ्य बने रहे। उनके अंतिम समय में एम्स-रायपुर अस्पताल में जब उन्हें हम देखने गए तब अशक्तता के बाद भी अपने कामरेडी जोश में हमसे मुस्कुराते हुए हाथ मिलाया. इस प्रकार प्रभाकर चौबे केवल विचारों से ही नहीं अपने व्यवहार में भी सदैव प्रतिबद्ध बने रहे. हमें उनसे सीखना चाहिए।

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