कविता बोझ- आख़िर कौन ? – नीलम जायसवाल
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बचपन में सुना था-
लड़कियाँ होती हैं बोझ
माँ-बाप पर ।
उन्होंने मुझे पाला, पढ़ाया,
और कर दिया मेरा कन्यादान,
मैंने आभार माना।
फिर… जीवन की पगडंडी पर
मैंने देखा – एक ‘बच्ची’-
गोद में उठाए,
अपने छोटे भाई को।
बहुत सारी ‘औरतें’- उठाती हैं गठ्ठर
लकड़ी के, घास के, और धान के।
कई ‘माताएँ’ – धोती हैं कपड़े,
बुहारती हैं आँगन, और ढोती हैं,
ईंट, गारा, रेत, सीमेंट।
एक बृद्धा –
अपने कुष्ठ रोगी पति की
तीन पहिया गाड़ी धकेल कर
ले जाती है जाने कहाँ-
सोचती हूँ, इस संसार में,
‘बोझ’. …आखिर ! कौन ?
कवयित्री संपर्क –
78282 45502