लघुकथा, जीवन के रंग अनेक- महेश राजा
कुछ दिनों से वह देख रहा था कि पत्नी कुछ बुझी बुझी सी रहती है,बीमार भी लग रही थी।
विवाह के बाद कुछ बरस ऐसा न था।रोज आफिस से आते समय कुछ न कुछ लाता,कभी फूल,कभी बेनी,कभी नमकीन या फिर आईसक्रीम।दिन पंख लगा कर उड रहे थे,और रातें हसीन।
फिर धीरे धीरे दो संतान,राजू और पम्मी का आगमन हुआ।महंगाई बढी।किसी कारण से उनकी सर्विस छूट गयी।
.अब हुई जीवन में परेशानियों की शुरूआत।एक प्राईवेट आफिस में छोटी सी नौकरी मिली।पर,घर के खर्च, बच्चों का बडा होना।दोनों मशीन की तरह हो गये।
पत्नी ने भी अब कुछ कहना छोड दिया ।
उसने हिम्मत न हारी।क ई जगह आवेदन लगाये।
आखिर वो दिन आ गया.जिसका उसे ईंतजार था।उसे अच्छे पद पर एक नौकरी मिल गयी।वह खुश था।
उसने ढेर सारी मिठाइयां,फूल और बच्चों के लिये खिलौने लियेघर पहुंचा।
बच्चे स्कूल गये थे।अच्छा अवसर था।उसने घर पहुंच कर पत्नी को पीछे से गले लगाया और कुछ कहना चाहा।पत्नी ने उसे पीछे घकेला,हटो ,मुझे बहुत काम है।
उसने पूर्ण शांति से अपने को संभारा।पत्नी पानी लेकर आयी.सारी बातें बतायी।पत्नी के चेहरे पर बरसों बाद खुशी नजर आयी।
उसे लगा कि वाकई अभाव और मुश्किलें जीवन को नीरस बना देते है।
पर हार न मार कर आत्म विश्वास से सब कुछ पुनः जीता जा सकता है।
पत्नी चाय बना कर लायी।बहुत दिनों बाद वही अच्छी फ्लेवर।वह मन ही मन खुश हो गया।
अब दोनों भावी जीवन की योजना बनाने लगे।कल करवाचौथ थी।इस बार यह त्यौहार उनके लिये खुशियाँ लेकर आया था।कल की तैयारी भी करनी थी।पति को नया आफिस भी ज्वाईन करना था।
पत्नी किचन में गये।पकवान की खुशबु और पत्नी के मुंह से काफी दिनों बाद खुशी भरे गीत सुन कर उसे अच्छा लगा।
【 लघुकथा के नाम से चर्चित, ख्यातिलब्ध साहित्यकार महेश राजा के लघुकथा नियमित रुप से ‘छत्तीसगढ़ आसपास वेब पोर्टल’ में प्रकाशित की जा रही है.
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