लघुकथा, दिसम्बर माह की एक सर्द सुबह -महेश राजा, महासमुंद-छत्तीसगढ़
मौसम ने एकाएक अपना मिजाज़ बदल लिया था।यह दिसंबर की अल्ल सुबह थी।वातावरण में कोहरा और नमी थी।
शिव मंदिर के सामने बन रहे नये मकान के चौकीदार ने आज अलाव सुलगा लिया था।
रोज सुबह की सैर करने वालों की संँख्या में आश्चर्यजनक कमी आ गयी थी।
नेहरु चौक के पास वाली होटल के मालिक का छोटा लडका बेमन से दुकान की चाबियांँ लिये ठिठुरता हुआ आ पहुँचा।उसे विश्वास था होटल का इकलौता स्टाफ टहलू समय पर
पहुँच गया होगा तो वह होटल खोलने और चाय की भट्ठी सुलगाने को बोरियत काम से बच जायेगा।पर,उसे यह देख कर बडी मायूसी हुई कि टहलू अब तक नहीं पहुँचा था।
सैर पर आने जाने वालो की चहल पहल शुरु हो गयी थी। सब मौसम के माफिक गरमा गरम चाय के लिये ऊतावली मचा रहे थे।
मन ही मन टहलू को गालियांँ देते हुए वह भट्ठी सुलगा कर ,चाय बनाने में जुट गया।उसे बेंच उठाकर बाहर रखनी पडी,तथा चाय पीने वालो को पानी भी देना पडा।उसका शरीर गुस्से से काँप रहा था।
तब कहीं जाकर टहलू जम्हाईयांँ लेता हुआ आता दिखाई पडा।वह उसे देख कर झल्ला उठा,”क्यों बे…,सा….।यह कोई समय है आने का।कहां मर गया था..इसे सरकारी दफ्तर समझ रखा है…..जब मन आये,मुंँह उठा कर चले आये।नौकरी करनी है कि नहीं… नहीं तो रास्ता नाप…”
टहलू सिर झुका कर काम मे जुट गया ।वह जानता था सेठ लोग की इस आदत को यह रोज की ही बात थी।
मालिक का लडका भी भडा़स निकाल कर चाय की चुस्कियांँलेता हुआ,अखबार के पन्नो मे सिनेमा की खबरेंपढने लगा।कि आज कौनसी फिल्म सौ करोड़ में शामिल हुई।
लोगो की भीड बढ रही थी।सब देश के बिगड़ते हालात और चुनाव की बातें कर रहे थे।टहलू भी सामान्य होकर पानी और चाय वितरित करने में लग गया था।
शायद! यही उसकी नियति थी।
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