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विष्णु नागर के दो व्यंग्य
▪️ कैमराजीवी
किसी युग में एक कैमराजीवी हुआ करता था। इतिहास की पुस्तकों में उसका नाम ठीक -ठीक नहीं मिलता, मगर इतना अवश्य ज्ञात होता है कि उसके नाम के अंत में इन्द्र जैसा कोई शब्द था। सुरेन्द्र, धनेन्द्र, सत्येन्द्र, धर्मेन्द्र, वीरेन्द्र या नरेन्द्र टाइप कुछ था। वैसे उसका सबसे प्रचलित नाम कैमराजीवी था। उस समय दुनिया में किसी से पूछने पर कि कैमराजीवी किस देश के, किस शहर के, किस पथ के, किस बंगले में रहता है, कोई भी मुस्कुराते या हंसते हुए बता देता था। बताते हैं कि असली नाम से पूछने पर उसके पड़ोसी तक कन्फ्यूजिया जाते थे। वैसे सच यह है कि उसका कोई पड़ोसी नहीं था। वह भी किसी का पड़ोसी नहीं था। वही अपना पड़ोसी, मित्र, पत्नी, भाई, बहन, बेटा, बेटी, चाचा, ताऊ, मां, पिता सबकुछ था। अपना पूर्वज भी वही था।
खैर। उसकी विशेषता यह थी कि कैमरे के बिना वह जी नहीं सकता था। कैमरा ही उसकी आक्सीजन थी, उसकी रोटी, दाल, चावल, खिचड़ी, फाफड़ा था। जिस आक्सीजन के बगैर हम जी नहीं सकते, उसने सफलतापूर्वक प्रयोग करके दुनिया को दिखा दिया कि उसके बगैर वह आराम से जी सकता है, मगर कैमरे के बगैर दस मिनट जीना भी उसके लिए मुश्किल है।
शुरू में सुबह वह बिस्तर से उठता ही तब था, जब कैमरा चालू होता था। एक बार कैमरामेन के देर से आने की वजह से उसे दस मिनट तक बिस्तर में यूं ही पड़े रहना पड़ा। उसकी सांस ऊपर -नीचे होने लगी। अब गया, तब गया — जैसा होने लगा। खैर दस मिनट तक वह इस आक्सीजन के बगैर किसी तरह जिंदा रह गया। इसे वह प्रभु की विशेष कृपा मानता है और इसके लिए वह ईश्वर को धन्यवाद देना कभी नहीं भूलता। इधर वह दूसरों से कहता है, मुझे धन्यवाद दो। उधर वह ईश्वर को बिला नागा इतनी बार धन्यवाद दे चुका है कि बोर होकर ईश्वर ने उसके धन्यवाद को हमेशा के लिए ब्लाक कर दिया है।
एक दिन भगवान श्री राम उसके सपने में मात्र यह बताने के लिए आए थे कि अपने प्रातःकालीन कर्मों को तू कैमरे में दर्ज मत करवाया कर। यह अच्छा नहीं लगता। यह मानव सभ्यता के विरुद्ध है। मैं तुझे गारंटी देता हूं कि तू जब तक तैयार होकर ब्रेकफास्ट की टेबल तक नहीं पहुंच जाएगा, तब तक तुझे कुछ नहीं होगा। उसके बाद के एक मिनट की भी मैं गारंटी नहीं दे सकता। उसने यह चुपचाप सुन तो लिया, मगर फिर उसे ख्याल आया कि वह तो बहुत बड़ी तोप है। उसने पूछा — ‘भाईसाहब, आपकी तारीफ? और यह भी बताइए कि आप मेरे सपने में किसकी इजाजत से आए? आपने जो किया है, यह प्रोटोकॉल के खिलाफ है। इससे मेरी सुरक्षा खतरे में पड़ सकती थी।’
खैर! उन्होंने बताया कि मैं फलां-फलां हूं। तब उसने पूछा — ‘आपके पास अपना आधार कार्ड तो होगा? दिखाइए प्लीज़, वरना मैं कैसे मान लूं कि आप भगवान राम हैं? मेरे सपने में तो मेरे स्वर्गीय पिताश्री भी आते हैं, तो अपना आधार कार्ड साथ लेकर, अपाइंटमेंट लेकर आते हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश हों, तो भी आपको मेरे सपने में आने के लिए थ्रू प्रापर चैनल आना होगा। अपना आधार कार्ड दिखाना होगा। सेक्युरिटी क्लीयरेंस लेना होगा। जाइए अब जल्दी से भागिए यहां से। मेरी सेक्युरिटी को पता चल गया, तो आपकी खैर नहीं। मैं आपको अब एक मिनट भी इंटरटेन नहीं कर सकता।’ मगर कैमराजीवी की पश्चात बुद्धि ने चमत्कार दिखाया। उसने उसी सुबह से दैनिक कर्मों को कैमरे की नजर से बाहर करवा दिया।
कैमरा इससे दुखी बहुत हुआ। कैमराजीवी ने कैमरे से कहा कि भाई, दुखी तो मैं भी हूं, मगर लगता है कि सपने में स्वयं भगवान श्री राम आए थे। उनकी सलाह को न मानना मैं अफोर्ड नहीं कर सकता। फिर भी तुम्हें इस वजह से जो आत्मिक कष्ट हुआ है, उसके लिए मैं क्षमा मांगता हूं।
बताते हैं, जीवन में उसने पहली और आखिरी बार किसी से माफी मांगी थी। उपलब्ध जानकारी के अनुसार कैमरे से माफी मांगनेवाला वह दुनिया का पहला और अभी तक का आखिरी इनसान है।
क्षमा मांगने पर कैमरे ने हृदय की उदारता का परिचय देते हुए कैमराजीवी के इस पहले अपराध को माफ कर दिया, मगर यह शर्त रखी कि आगे से ऐसा कोई अपराध क्षम्य नहीं होगा। कैमराजीवी ने भगवान की कसम खाकर कहा कि चाहे जो हो जाए, सपने में या प्रत्यक्ष ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी प्रकट हो जाएं, तो वह उनकी बात नहीं मानेगा। कैमरे को उसके वचनों पर विश्वास तो नहीं था, क्योंकि छाती ठोककर दिए गए ऐसे वचनों को न निभाना उसका स्वभाव था, मगर फिर भी कैमरा मान गया कि चलो, देखते हैं, होता क्या है।
कहते हैं कि कैमराजीवी ने अपने पूरे जीवन में किसी एक से अपना वचन निभाया, तो वह केवल और केवल कैमरा था। आज भी उसकी इस वचनबद्धता को याद करते हुए लोगों की आंखों में आंसू आ जाते हैं। अब विवाह समारोहों में दूल्हा -दुल्हन से सात नहीं, आठ वचन लेने को कहा जाता है। उसमें एक वचन यह होता है कि जैसे कैमराजीवी ने कैमरे से आजीवन अपना वचन निभाया, उसी तरह हम भी परस्पर वचन निभाएंगे। आजकल इस वचन के बगैर हुआ विवाह अनैतिक और अमान्य माना जाता है।
▪️ लोकतंत्र के राजा का बाजा
सिर्फ़ राजतंत्र में राजा नहीं होते, लोकतंत्र में भी होते हैं। फर्क यह होता है कि इनके पद का नाम राजा नहीं होता — प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति जैसा कुछ होता है। फर्क यह भी होता है कि बेचारों को पांच साल में कम से कम एक बार चुनाव लड़ना पड़ जाता है।
अगर कोई प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति यह तय करे कि उसने झूठ के सहारे पर्याप्त से अधिक बहुमत जुटा लिया है और उसे यह साबित करना है कि वह प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति नहीं, राजा है, तो फिर उसे कोई रोक नहीं सकता। न संविधान, न कानून, न अदालत, न संसद, न टीवी, न अखबार, न विपक्ष, न मेहनतकश जनता, न विदेशी मीडिया, न सोशल मीडिया। बस उसे सबसे झूठ बुलवाने की कला आना चाहिए, फिर थोड़े-बहुत लोग सच भी बोलें, विरोध भी करें, तो ज्यादा अंतर नहीं पड़ता। अधिक खतरा हो, तो उनके लिए जेलें हैं, पुलिस है, बंदूक और गोलियाँ हैं। बाकी भी सबको वह बस में कर लेता है। बोलते रहो। जंगल में मोर नाचा, किसने देखा? सौ-पचास-हजार-लाख कहें भी कि हमने देखा, हमने देखा, तो क्या फर्क पड़ता है! वह कहलवा लेता है कि इस देश में न जंगल हैं, न मोर, तो इन्होंने कहाँ देखा?उसका झूठ सच हो जाता है, दूसरों का सच झूठ!
लोकतांत्रिक राजा लोकतंत्र की कसम खाकर आता है, बीच-बीच में लोकतंत्र-लोकतंत्र, खतरा-खतरा करता रहता है। मगर जब राजा होना तय किया है, तो फिर लोकतंत्र से क्या डरना! जब तक चुनाव से काम चलता है, चलाओ। नहीं चले, तो फर्जी चुनाव करवाओ और फर्जी से भी काम न चले, तो राजा हो, राजा रहो। कहो, लोकतंत्र का हमारे दुश्मन फायदा उठा रहे हैं। पहले इन दुश्मनों को खत्म करना है। आइए हम भी हांगकांग बनते हैं, आइए हम भी बर्मा बनते हैं। आइए देश को बचाते हैं, धर्म को बचाते हैं, जाति को बचाते हैं, वर्णव्यवस्था को बचाते हैं।
लोकतंत्र के राजा का अश्वमेध का घोड़ा झूठ होता है। उसकी फौज उसका सोशल मीडिया, उसके टीवी नेटवर्क होते हैं।
उसे सबसे ज्यादा जनता से झूठ बोलने की कला में पारंगत होना होता है। उसे अमीरों की जम कर सेवा करना होता है। उसे बहरा होना होता है, कभी अंधा, कभी काना भी। बस मुंह उसका मुँह खुला रहे, जब चाहे बोलता जाए, जब चाहे चुप रहे। अक्सर, ये राजा, उन राजाओं से भी बड़े राजा होते हैं, जो पद और नाम से राजा कहे जाते थे। उन राजाओं से ज्यादा ऐश्वर्य ये भोगते हैं। उन राजाओं से ज्यादा ये निरंकुश, सनकी, अकल से पैदल, अड़ियल और अंधे होते हैं।
हाँ, ये चुनकर ही आते हैं। हाँ, हमीं उन्हें वोट देते हैं, बहुमत से चुनते हैं। हाँ, इस लोकतंत्र में संसद भी होती है, मंत्रिमंडल भी होता है, अदालतें भी होती हैं, अखबार, रेडियो, टीवी, सोशल मीडिया सब होता है। संविधान भी होता है, कानून भी होते हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी होती है। लोकतंत्र के जितने तामझाम होते हैं, सब होते हैं। भाषण भी होते हैं, जुलूस भी निकलते हैं, विरोध भी होता है, समर्थन भी होता है। कहने को कोई कमी नहीं होती, मगर सब होकर भी कुछ नहीं होता, अगर वह तय करे कि उसे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति नहीं, राजा होना है।बेचारे की मजबूरी इतनी भर होती है कि उसके पद का नाम राजा नहीं होता। कहीं उसका नाम राष्ट्रपति होता है, कहीं प्रधानमंत्री। मगर शेक्सपीयर कह गए हैं कि नाम से क्या होता है। रेसकोर्स रोड का नाम जिस प्रकार लोककल्याण मार्ग होने से फर्क नहीं पड़ता, उसी तरह राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री नाम होने से भी क्या अंतर पड़ता है?
जैसे राजतंत्र में होता था, कुछ राजा अशोक और अकबर भी होते थे, कुछ रासरंग में डूबे हुए भी, कुछ विशुद्ध लुटेरे भी, कुछ निरंकुश और पागल भी। लोकतांत्रिक राजा भी कुछ ऐसे ही होते हैं। हमारे यहाँ ऐसे ही एक राजा हैं, जिनका बैंड अभी- अभी बज चुका है।
{ विष्णु नागर व्यंग्यकार पत्रकार व साहित्यकार हैं. कई पुरस्कारों से सम्मानित हैं. स्वतंत्र लेखन मेें संलग्न. • संपर्क : 98108 92198 }
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