कविता- संतोष झांझी
4 years ago
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●बासंती बयार
बासंती बयार हमें न सता
न बालों को छू न आँचल उड़ा
अमराई गदराई
कोयल भी बौराई
लगती है भली भली
पेड़ों की परछाई
हरियाली चूनर को
ओढ लिया धरती नें
तूं मुझको चूनर उढ़ा
चुपके बसंत आये
पलकों को दुलराये
जैसे कोई अपना
धीरज बंधा जाए
चूम लिया पीड़ा को
महकी हवाओं नें
गीत कोई संग गुनगुना
कोंपलें बुहारतीं
पीतवर्णी पातों को
अलसाई सी पुरवा
मधुमाती रातों को
चन्द्रकला शबनम से
तन मन भिगोती है
आ हम भी लें अब नहा
[ ●छत्तीसगढ़ प्रदेश से देश की सु-मधुर स्वर की कवयित्री संतोष झांझी,किसी परिचय की मोहताज़ नहीं. ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ वेब पोर्टल में उनकी कवितायें निरंतर प्रकाशित होते रहती है. आज़ अपने पाठकों के लिए एक और कविता ‘बासंती बयार’ दे रहे हैं, कैसी लगी,लिखें. -संपादक ]
chhattisgarhaaspaas
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