नव गीत
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संतोष झाँझी
भिलाई-छत्तीसगढ़
जब उलझा उलझा सा हो मन
मन में उलझन सी छाई हो
ये मन तब कैसे उल्लसित हो
जब मन में गहरी खाई हो
हर दिल मे उलझन दबी दबी
हर दिल में भरी उदासी है
सूखी सी है मन की धरती
जैसे जन्मों की प्यासी है
इतने शोरोगुल के भीतर
जब छुपी हुई तन्हाई हो
छोड़ो अब सारे मोहजाल
जीवन जीने के सब उपक्रम
जो होना है सो होने दो
मत पालो मन मे कोई भ्रम
क्या जानें किसकी किस्मत में
फिर लिखी हुई रूसवाई हो
यादों मे तेरी डूब डूब
हमनें है जीना सीख लिया
अमृत से धोखा खा खाकर
हमनें विष पीना सीख लिया
जब गीत लिखे तो ऐसे लिखे
ज्यों रोती हुई रूबाई हो
चलते चलते चलते जाना
कुछ सोच जरा सा थम जाना
देखा जब मनचाहा सपना
सपनों पर आँखे जम जाना
जब मन पे वश न रहे अपना
मन पे छाई पुरवाई हो
कवयित्री संपर्क-
97703 36177