मई दिवस पर विशेष- •सरला शर्मा.
●यूं ही
-सरला शर्मा
[ दुर्ग-छत्तीसगढ़ ]
1 मई यानि अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस ..
श्रम तो जीवन का अनिवार्य अंग है और जो किसी भी तरह की मेहनत करता है जिसके बदले उसे पैसा मिलता है वह है मजदूरी ..कह सकते हैं श्रम विनिमय । मालिकों के द्वारा मजदूरी का समुचित भुगतान न होना , काम के निश्चित घण्टे न होना , आवास , शिक्षा , स्वास्थ्य सम्बन्धी मूलभूत सुविधाओं की कमी आदि की मांग करते हुए 1 मई सन 1886 में अमेरिका की मजदूर यूनियनों ने अपनी मांग रखी वही दिन आज सारे संसार में मजदूर दिवस के रूप में जाना जाता है ,आज तो श्रम मंत्रालय है , न्याय के लिए लेबर कोर्ट है शिक्षा , स्वास्थ्य की प्रारंभिक सुविधा हर मजदूर को प्राप्त है आज मजदूरों का हार्दिक अभिनन्दन करती हूं ।
सालों पहले डॉ पालेश्वर प्रसाद शर्मा ने कहा था ” 1 मई मजदूर दिवस है , मेरा जन्मदिन भी है क्योंकि मैं भी तो मजदूर ही हूं कलम का मजदूर .” वो मुक्त हंसी आज भी कानों में गूंज रही है । जांजगीर ( छत्तीसगढ़ ) के सरयूपारीण ब्राम्हण परिवार में 1 मई सन 1928 को स्व. श्यामलाल दुबे जी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी जिसने साहित्य को अध्ययन , अध्यापन के साथ स्वयं को अभिव्यक्त करने का माध्यम बनाया ।
साहित्य ही उनका जीवन था , रोचक संस्मरण , भारतीय संस्कृति , साहित्यकारों की उपलब्धियों ,विशेषताओं की चर्चा करते समय जाने कितने उद्धरण दिया करते , अद्भुत स्मरण शक्ति थी । ” आंसू ” की चर्चा करें या सूर , तुलसी , मुक्तिबोध की धारा प्रवाह उद्वरण सुनने को मिलता , हम लोग मुग्ध हो सुनते रहते ।
भाषा की पोटली तो साथ ही होती थी , श्रोता की जरूरत के अनुसार हिंदी , छत्तीसगढ़ी , संस्कृत , अंग्रेजी का ज्ञान उपलब्ध हो जाता । अंग्रेजी अध्यापक के रूप में नौकरी शुरू किये , मन रमा नहीं तो हिंदी साहित्य में शोध कार्य किये पी एच डी करके महाविद्यालय के प्राध्यापक नियुक्त हुए , हिंदी में लेख , कहानियां लिखते थे पत्र पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित हुआ करती थीं ।
बंशी धर पांडेय की कहानी हीरू की कहिनी से प्रभावित तो थे ही उन्हीं दिनों जांजगीर की एक गोष्ठी में चर्चा हुई कि छत्तीसगढ़ी में कवितायें तो लिखी जा रही हैं किंतु गद्य का अभाव साहित्य भंडार भरने में बाधक है । विद्या भूषण मिश्र , विमल कुमार पाठक , अरुण सोनी ,तुलाराम गोपाल आदि साहित्यकारों के बीच बैठे शील जी ने कहा ” पालेश्वर को छत्तीसगढ़ी भाषा में गद्य लेखन करना होगा । ” वैसे भी डॉ पालेश्वर प्रसाद शर्मा गद्यकार तो थे ही, फिर क्या पहली कहानी ” नांव के नेह म ” प्रकाशित हुई जो बिलासा की बिलासपुर की गाथा है । शृंखला की कड़ियां बढ़ती रही ” सुसक झन कुररी सुरता ले , तिरिया जनम झनि देय , गुड़ी के गोठ , छत्तीसगढ़ परिदर्शन , नमोस्तुते महामाये , प्रबंध पाटल आदि अनमोल किताबें पाठक के हाथों पहुंचती रही ।
जब भी उन्हें मंचासीन देखी सुनने की तीव्र लालसा ने रोम रोम भये कान को सार्थक कर दिया जब वे कहते ” बहुत देर हो गई सुनाते अब छुट्टी दो भाई । ” तो मुझे लगता अरे ! अभी तो बहुत कुछ जानना है , सुनना है , समझना है अभी से छुट्टी क्यों ..? फिर तालियों की गड़गड़ाहट से होश आता वक्तव्य समाप्त हो गया है।
रात ढ़लने लगी , अब मुझे छुट्टी दें । शतशः नमन